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‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव को एक चेतावनी !! Posted: 07 Feb 2012 09:07 AM PST
राजेन्द्र जी, 'हंस' के अक्टूबर अंक 2010 में 'तुम्हीं ने तो दिए हैं ये हथियार' शीर्षक के तहत आपका सम्पादकीय पढ़ा. मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि आप दबंगई और उद्दम मैक्सिकन चित्रकला व टेंगो, डिस्को, रॉक आदि आधुनिक संगीत को एक क्रान्ति एवं विद्रोहपूर्ण प्रतिक्रिया का परिणाम बता कर, 'फेमिनिज्म' को भी कुछ इसी तरह की विध्वंसात्मक परम्परा का अनुगामी घोषित करके, उसे 'देह के तल' पर तौलते हुए एक बार फिर पहले जैसा अनर्गल राग अलापने लगे ! मुझे 'नारी विमर्श' के विषय में उसकी देह पर अटकी आपकी नज़र का औचित्य आज तक समझ नहीं आया ! यानी कि नारी-विमर्श = देह-विमर्श, 'नारी-मुक्ति' बनाम 'देह-मुक्ति', मतलब कि देह के स्तर पर नारी का उन्मुक्त और बेलगाम हो जाना – आपके अनुसार ये ही नारी मुक्ति का अर्थ है, यह ही नारी मुक्ति की शुरुआत है ! पहले आलेखों की तरह, अपने इस आलेख में भी आप नारी की यौनिक आजादी की चिंता में घुले जा रहे हैं ! नारी 'मात्र देह ही' क्यों दिखती है आपको ? आप क्यों नहीं समझना चाहते कि वह इंसान पहले है, 'नारी' बाद में ! उसका एक मानसिक और भावनात्मक जगत भी है जो पुरुष से अधिक सबल और प्रबल है ! वह मानसिक और भावनात्मक पाबंदियों से मुक्त होने के लिए जितनी छटपटाती रही है, उतनी शारीरिक रूप से मुक्त होने के लिए कभी आकुल नहीं रही ! आप क्योंकर पिछले कई वर्षों से इस गंभीर और संवेदनशील विषय की छीछालेदर किए जा रहे हैं…..खैर, इस असली मुद्दे पर मैं आपकी गलतफहमियां बाद में दूर करूँगी, पहले आपके सम्पादकीय पर, शुरुआत से लेकर अंत तक बारीकी से सूक्ष्म विमर्श करते हुए, आपके द्वारा अनेक स्थानों पर प्रस्तुत भ्रामक तथ्यों और आपत्तिजनक बातों की ओर विनम्रता के साथ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगी ! आपने आलेख की शुरुआत में मैक्सिकन कला में अभिव्यक्त जिस ऊर्जा, दबंगई, हिंसा और उद्दामता के उदगम की जानकारी दी है, वह एकदम भामक है. यदि आप मैक्सिकन कला के जानकार हैं तो आपको मालूम होना चाहिए कि प्रसिध्द मैक्सिन कलाकारों Orozco, Rivera, Siqueiros की चित्रकला जनसाधारण से जुडी, सैध्दांतिक और शिक्षापरक थी ! उनके चित्र मैक्सिन माइथोलौजी और इतिहास को प्रतिबिंबित करते थे ! उन्होंने मैक्सिन क्रान्ति के लक्ष्यों, उसकी पृष्ठभूमि और कामगार लोगों के संघर्ष को उकेरा ! खासतौर से 'हाथों' को दर्शाने वाली अधिकांश पेंटिग (१९३०) मेहनत और कर्मठता से हासिल, प्रोलेटेरियन वर्ग की 'ताकत' की प्रतीक थी ! सामाजिक संचेतना और कम्यूनिज्म से जुड़े राजनीतिक संदेशों से भरपूर इन कलाकारों के चित्रों में, कहीं भी साँप, बिच्छू. बिल्ली कुत्ते आदि के माध्यम से कुछ भी नहीं दर्शाया गया ! मैक्सिन कलाकारों की विश्व भर में प्रसिध्द कलाकृतियों के लिए आपकी यह साँप, बिच्छू, कुत्ते, बिल्ली आदि की कोरी कल्पना मुझे मान्य नहीं है ! मतलब कि कलाकारों के विद्रोह के उपादान 'मानवीय चेहरों' के क्रोध, आक्रोश, दुःख और पीड़ा के भाव थे तो कही 'हाथ' ताकत और कर्मठता के प्रतीक बन कर उभरे ! उन माने हुए कलाकारों ने बड़े शानदार ढंग से मैक्सिकन क्रान्ति और विद्रोह को दर्शाया ! इसी से जुडा दूसरा बिंदु है कि – योरोपियन कला मर्मज्ञों ने मैक्सिकन कला को किसी तरह की विवशता के तहत नहीं स्वीकारा ! मैक्सिकन कला की ऊर्जा और उद्दामता, खास सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों और संदेशों को झलकाती थी, इसलिए मन पर प्रभाव छोडने के कारण, सौफ्ट योरोपियन कला मर्मज्ञों ने उसे उदारता से सराहा, स्वीकारा, न कि विवशता से ! इसी तरह, समय के साथ परिवर्तित, संगीत 'सौफ्ट' से 'हार्ड' रूप में ढल कर, टेंगो, डिस्को, रॉक के उद्दाम ध्वनि तरंगों रूप में सामने आया तो बीसवीं सदी के युवाओं के लिए मनोरंजन के साथ – साथ, अपनी अतिरिक्त ऊर्जा और शक्ति को निष्कासित करने का माध्यम बना ! राजेन्द्र जी, तेज़ – तीखी धुनों वाला, वाद्यों के शोर से भरपूर आधुनिक संगीत किसी विद्रोह या क्रान्ति का प्रदर्शन के रूप में नहीं अपितु संसार के, प्रकृति के 'परिवर्तन चक्र' के तहत एक नवीन रूप में सामने आया है ! आपने इसी पैराग्राफ में लिखा है – 'असभ्य नीग्रों जातियों'….शायद आपको जानकारी नहीं है कि 'नीग्रो' शब्द का प्रयोग लंबे समय से उसी तरह से निषिध्द (Banned) है. जैसे कि हमारे देश में 'जातिसूचक विशिष्ट' शब्द ! आगे से, आलेख लिखते समय ऐसे शब्दों के प्रयोग के साथ सावधानी बरतें क्योंकि आप एक लेखक, विचारक और संपादक तीनों का दायित्व ओढें हैं ! हंगामा बरपा करने वाले शब्दों से परहेज़ ज़रूरी होता है, खासतौर से 'संपादक' के लिए ! कुछ समय पहले आपने देखा नहीं था कि एक प्रसिध्द पत्रिका के संपादक द्वारा अपने सम्पादकीय दायित्व को हल्केपन से लेने के कारण, 'छिनाल' शब्द ने कैसा तूफान खडा कर दिया था ? उस तूफ़ान की विपरीत हवाएँ बड़ी देर बाद थमी थी ! आगे इसी सन्दर्भ में आपने दलितों के दमन का हवाला भी दिया है ! इस तरह 'दमन और दलन' की भूमिका बाँधते हुए, आपने असली मुद्दे 'नारी दमन' पर आकर, 'फेमिनिज्म' के बारे में अपने बासी 'मायोपिक' विचार परोस कर मनीषी पाठकों का हाज़मा खराब कर दिया ! जैसा कि आप और हम सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि ''स्त्री दमन' हमेशा से न जातिपरक था, न धर्मपरक था और न देशपरक था बल्कि वह स्त्री और पुरुष में भेद-भाव करने वाला 'लिंगपरक' था जो मर्दवादी व्यवस्था की रुग्ण मानासिकता के कारण जन्मा था ! सदियों से मर्दों के 'एक विशाल वर्ग' के अंदर छुपी 'तर्कहीन' असुरक्षा की भावना और थोथे अहं के कारण, नारी दमन और निषेधन के दायरों में कैद रही है ! जन्मते ही, दबने व सहने की खाद उसके चारों ओर जम कर थोपी जाती रही ! इतना ही नहीं, उस थुपी स्त्री पर सँस्कारों के छींटे मार – मार कर, उस बेचारी की ऐसी 'सघन कंडीशनिंग' की गई कि वह दबने, हर ओर से अपने को 'विदड्रा' करके जीने को ही अपनी नियति मानने लगी ! यहाँ तक कि अपने चारों ओर खींचे गए दायरों से बाहर निकलना अपराध समझने लगी (सौजन्य से – 'मनुस्मृति') ! यहाँ आप यह न भूलें कि आपने बार-बार जिस कंडीशनिंग का हवाला दिया है, वह इंसान के -चाहे वह नारी हो या पुरुष – मानसिक जगत से जुडी होती है – देह से नहीं ! समाज में सदा से विराजमान 'मर्दवादी व्यवस्था' के चलते स्त्री का पलट कर जवाब देना, अपनी स्वीकृति-अस्वीकृति, सहमति-असहमति जताना, व्यक्तिगत, घरेलू व बच्चों के मामले में अपने आप निर्णय लेना आदि भी उसके लिए निषिध्द रहा – मतलब कि किसी भी जगह वह आत्मनिर्भर और आज़ाद नहीं थी ! ये निषिध्दताएँ स्त्री के दिलो-दिमाग यानी विचारों और भावों के साथ इस तरह एकाकार कर दी गई कि आज इक्कीसवीं सदी में भी वह अपने द्वारा लिए गए निर्णयों को लेकर तब तक आश्वस्त नहीं होती, जब तक वह पिता, भाई या पति से सलाह – मशविरा नहीं कर लेती ! सलाह – मशविरा करना बुरा नहीं है – बुरी है वह मानसिकता, जो सदियों से उस पर हावी रही – हर बात में पुरुष पर निर्भर होने की, बात-बात में उसका मुँह तकने की ! औरत पति से पहले भोजन कर ले कभी तो, अपराधबोध से भर उठती है, किसी अपेक्षित काम के सिलसिले में एक से अधिक बार घर से अनुपस्थित रहे, तो भी अपराधी महसूस करती है ! वह घर और बाहर के ज़रूरी कामों को जिस जिम्मेदारी निबटाती है, उसकी उस भावना को नज़रंदाज़ करके पति 'अनुपस्थिति' को लेकर नाराज़ होकर शिकायतों का अम्बार लगाता नज़र आता है ! इसी तरह, यदि पति आफिस के बाद मित्रों के साथ समय काट कर देर से घर लौटता है या कोई शराबी पति नशे में चूर होकर, रात को देर से घर आता है, तो उस पर नाराज़ होना तो दूर, वह देर से आने का कारण भी नहीं पूछ सकती ! पत्नी का फ़र्ज़ है, 'खामोश जुबान' के साथ बाहर घूम फिर कर आए, थके पति को सम्हालना, भोजन देना, उसकी लतों और लातों को झेलना ! इसी तरह, कभी किसी सामाजिक कार्यक्रम में जाने का मन न हो तो, पति से 'ना' कहते हुए संकोच करना, उसकी नाराज़गी के अंदेशे से डरना – मतलब कि इन साधारण बातों में भी अपनी मर्जी जताने के लिए स्वतन्त्र न होना ! इन छोटी-छोटी रोज़मर्रा की बातों से लेकर बड़े-बड़े कुछ ऐसे सार्वकालिक महत्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं जिन पर हमेशा पुरुष व्यवस्था की तलवार टंगी रही है ! आप ही ज़रा सोचिए कि ये बन्दिशें स्त्री की देह से जुडी हैं या उसके मानसिक और भावनात्मक जगत से ? फिर आप नारी-विमर्श को देह के स्तर पर सुलझाने पर क्यों लगे हैं ? सृष्टि के आरम्भ से चली आई स्त्री की अनुशासित यौनिकता जिसे वह अपने पति तक सीमित रखने में विवाह संस्कार की गरिमा मानती रही, आप उसे खंडित करने में नारी- मुक्ति की उपलब्धि कैसे मान रहे हैं ? बल्कि एक सर्वेक्षण के अनुसार पहले भी और आज भी, नारी के लिए सिर्फ अपनी ही नहीं, अपितु पुरुष की भी अनुशासित यौनिकता ही काम्य रही ! लेकिन अफसोस कि पुरुष ने मनु के ज़माने से ही, न तो नैतिकता की खातिर और न परिवार की खातिर, परनारी की ओर फिसलती अपनी भावनाओं और यौनिकता को अनुशासित करना चाहा ! उसकी वह प्रवृति आज तक बरकरार है ! इस गंभीर मसले में आप पुरुष यौनिकता को अनुशासित करने की गुहार लगाने के बजाए, उलटे, स्त्री को यौनिक आजादी दिलाने की बात कर रहे हैं ! इतना ही नहीं, दूसरी ओर आप, पारिवारिक बिखराव के प्रति भी चिंतित हैं ! बिखरे परिवारों के मद्दे नज़र, आपका 'देह-मुक्ति का यह अटपटा फलसफा तो परिवारों को और अधिक तहस – नहस ही करेगा, उन्हें समेटेगा नहीं ! इससे परिवार मिटेगें ही, बनेगें नहीं. विवाह संस्था ही समाप्त हो जाएगी ! हमें समाज को अधिक सुगठित बनाने के लिए वैवाहिक संस्था को बचाना चाहिए, परिवारों को टूटने से बचाना चाहिए कि उन्हें ध्वस्त करने की राह पर चलाना चाहिए ? इस सन्दर्भ में आगे आप लिखते है कि पहले की तुलना में परिवारों का बिखराव अधिक हो गया है ! इसका कारण आपके लेख से जो ध्वनित होता है – वह है नारी की उन्मुक्तता ! जबकि सच्चाई यह है कि आज नारी की आर्थिक आत्मनिर्भरता ने उसे मर्दवादी दबाव को झेलने की विवशता से उबरने की सामर्थ्य दी है ! नारी कभी भी घर को नहीं बिखेरती अपितु उसकी भरसक कोशिश रहती है कि उसका घर बना रहे, लेकिन जब पुरुष अराजकता की हद ही हो जाती है, तो आज की आर्थिक रूप से स्वतंत्र नारी अपने अस्तित्व को कुचल कर निबाह करने के लिए विवश नहीं होती ! यहाँ एक और सच्चाई का खुलासा करना चाहूँगी कि परिवार और वैवाहिक जीवन आज ही नहीं, बल्कि पहले भी टूटे और बिखरे होते थे ! बस अंतर इतना था कि सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण पति-पत्नी दबे- ढके एक छत के नीचे अलग-अलग ज़िंदगियाँ जीते रहते थे ! पत्नियाँ बच्चों और घर-गिरस्ती में अपने मन को बहलाए रखती थीं और पति बाहर मन बहलाते थे ! आज के जोड़े खास कारणों से, साथ रहना नामुमाकिन हो जाने पर, एक छत के नीचे रहने का दिखावा नहीं करते ! मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि आप रह-रह कर स्त्री को शारीरिक रूप से मुक्त होने के लिए क्यों ललकार रहे हैं – मतलब कि परोक्ष रूप से आप उसे व्यभिचारी होने का सुझाव क्यों दे रहे हैं ? यह आपकी दृष्टि का दोष है या सोच का खोट ? क्योंकि एक ओर आप उसे एक जीर्ण- शीर्ण कंडीशंड मानसिकता से निकालने की बात कर रहे हैं, तो दूसरी ओर, प्रकारांतर से आप उसे 'सैक्सुअल एब्यूज' के लिए 'कंडीशंड' होने की सलाह दे रहे हैं ! आपके नारी – विमर्श पर अक्सर ऐसे आलेखों को पढकर, कभी-कभी मै सोचती हूँ कि इसमें आपका भी दोष नहीं क्योंकि अक्सर अंतर्मन से विशुध्द मर्दवादी सोच वाले और ऊपर से नारी उध्दार के हिमायती, आप जैसे पुरुष 'शुभचिंतक' का चोगा पहन कर औरत को भटकाने के लिए ऐसे सुझाव देते देखे गए हैं जिनसे वह भुलावे में आकर, पहले से अधिक शोषित और दमित हो जाए ! ज़रा अपने मन को टटोल कर देखिए – कहीं 'नारी मुक्ति' को 'देह-मुक्ति' का पर्यायवाची बना कर, नारियों को मूर्ख बनाने की आपकी यह नई जोड़-तोड़ तो नहीं – जिससे वे व्यभिचार के मकडजाल में उलझाती जाएँ ! एक स्थान पर आप लिखते हैं कि 'पुरुष द्वारा खास वातावरण और सामाजिक मानसिकता तैयार की जाती है…' आप क्यों भूल रहे हैं कि पौराणिक काल से समाज में पुरुष वर्चस्व रहा है , रामायण हो या महाभारत या आधुनिक युग में रची गई 'कामायनी' – ये सब ग्रन्थ पुरुषवर्चस्व की ही गाथा बांचते हैं, पुरुष-व्यवस्था की ही कहानी कहते है ! हर औरत सीता, द्रौपदी, श्रध्दा है – उसका जीवन बना ही अग्नि परीक्षा देने , दाँव पर लगने और त्याग और समर्पण करने के लिए हैं. राजेन्द्र जी, किसी औरत ने कभी नहीं चाहा कि उसके जीवन में कोई 'इड़ा' आए और उसके 'मनु' को भटकाए. यदि दुर्भाग्य से इड़ा बलात आ भी गई, तो पत्नी ने पति से भरपूर निष्ठा और वफादारी चाही ! तो पुरुष को 'वातावरण और सामाजिक मानसिकता' तैयार करने की ज़रूरत ही कहाँ रह जाती है ? समाज के वातावरण, व्यवस्था, चप्पे-चप्पे पर पुरुष का ही बोलबाला है, राज है, हर तरफ उसी की छाप है ! समाज चौबीस घंटे मर्दवादी व्यवस्था से स्पंदित है ! विडम्बना की बात यह है कि तब भी पुरुष आतंकित है, भयभीत है (शायद अपनी कुंठाओं के कारण) ! दूसरी ओर, नारी – शासित होकर भी इतनी हैरान, परेशान नहीं. जितना कि पुरुष उस पर शासन करके ! जीवन में कोई भी स्थिति स्थाई नहीं रहती ! पतन के बाद उत्थान, उत्थान के बाद पतन आता ही है ! 'यात्त्येकतोsस्तशिखरम पतिरौषधिनाम्, आविष्कृतो एकतोsर्क: ' का नियम दमित नारी के उत्थान पर भी लागू हुआ ! पहले जो उसकी स्थिति थी उससे वह निश्चित रूप से उबरी ! प्रत्येक क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता और प्रतिभा का परचम फहराया ! मर्दवादी ताकत से संचालित समाज में, जब-जब नारी ने साहस बटोर कर, अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती दी – तब तब पुरुष ने परास्त महसूस किया ! नारी शक्ति और क्षमता को देख कर, पुरुष को खतरे दिखे और उसके अपने अस्तित्व को डिगा देने वाली चेतावनियाँ लहराती नज़र आई. ! जब कि स्त्री ने कभी भी पुरुष के अस्तित्व पर वार करने की नहीं सोची, अपितु समाज में अपनी खोई हुई, छीनी हुई जगह बनाने की न्यायपूर्ण लड़ाई लड़नी चाही ! शासक पुरुष वर्ग उसकी इस जायज़ माँग से बेबात डरता रहा और बदले में उस पर चीखता-चिल्लाता रहा ! वह आज तक उस निरर्थक भय से नहीं उबरा है. इसलिए ही तरह-तरह के पैंतरे बदल कर स्त्री को मानसिक और दैहिक कष्ट देने से बाज़ नहीं आता ! स्त्री की अवहेलना, आलोचना कर, भावनात्मक और मानसिक रूप से रौंद कर, शायद उसे एक (खोखले) दर्प और (रुग्ण) सुख का अनुभव होता है ! यह बात संवेदनशील और विचारशील पुरुषों पर लागू नहीं होती ! हमारे आस-पास ऐसे न्यायप्रिय और समझदार पुरुष भी हैं जिनकी सोच नारी-विमर्श को लेकर नितांत सुलझी हुई है ! यह भी हम नारियों के लिए सन्तोष की बात है ! नारी को यदि सामाजिक-साँस्कृतिक दायरों में बाँधने वाले पुरुष थे, तो उन दायरों से बाहर निकालने की जंग लड़ने वाले गांधी, गोखले, दयानंद सरस्वती भी पुरुष ही थे, लेकिन आप जिस कुंठित पुरुष तबके की बात करते आए हैं – वह कभी भी स्त्री हिमायती नहीं रहा ! मुझे कहने की ज़रूरत नहीं, आप खुद ही इस लेख में और अपने अन्य लेखों में भी, मर्दवादी व्यवस्था को कोंचते ज़रूर रहें हैं, लेकिन आप उस सोच से आज तक मुक्त नहीं हो पाए ! यदि मुक्त हो गए होते तो 'नारी-मुक्ति ' को 'देह-मुक्ति' का जामा न पहनाते ! यह एक वैश्विक और ऐतिहासिक सत्य है कि समाज में किसी भी तरह का 'बदलाव' हमेशा मानसिक जगत से यानी – विचारों से जुडा होता है ! यही नियम, यही मनोविज्ञान नारी-मुक्ति पर भी लागू होता है ! देह को नारी ने कभी भी मुक्ति का मंच नहीं माना और न बनाया, वरन उसकी जिस देह पर पुरुष की गीध्द दृष्टि रही है – उस देह की रक्षा की कामना और उम्मीद उसने पुरुष से की है हमेशा ! राजेन्द्र जी, आपका देह मुक्ति का सोच निरा थोथा, भोंडा, आधारहीन और हल्की सोच को दर्शाता है ! आपका यह सोच कि ''नारी को पतिता, कुलटा, छिनाल , फाहिशा कहना उसे गाली देना नहीं – बल्कि मर्दवादी सामंती चंगुल से छुटी स्त्री के लिए सामान्यतया प्रयुक्त 'उपाधियाँ' हैं और न जाने आज कितनी लडकियाँ, सामाजिक कार्यकर्ता व अभिनेत्रियाँ अपने लिए इन अपमानजनक शब्दों को सुनकर आनंदित होती हैं'' – इस बारे में भी आप यह जान लीजिए कि अगर आप 'वेश्या' को भी वेश्या कहकर बुलाएगें तो वह भी कडुवाहट से भर कर, आप पर अभद्रता से वार करेगी और दस बीस छंटे – छंटे 'अपशब्दों' से आपको नवाजेगी ! फिर आज की पढ़ी लिखी, नौकरी पेशा, सामाजिक कार्यकर्ता महिला अपने लिए अवमानना पूर्ण शब्दों को सुनकर कैसे खुश हो सकती है ? खुश नहीं होगी वह, बल्कि यूँ कहिए कि आगबबूला होगी ! जैसे कि हाल ही में 'छिनाल' शब्द के खिलाफ वह भडकी और उसने आग उगली ! किसी की बेटी, बहन, पत्नी के रूप में जानी जाने वाली नारी के साथ – आधुनिक काल में एक और 'सशक्त पहचान' जुड गई है – जो पुरुष वर्चस्व से परे – उसकी अपनी कर्मठता और योग्यता से निर्मित हुई है ! अब से पहले भी और आज भी, किसी की बेटी, बहन, या पत्नी कहलाए जाने में उसने न तो कभी बुरा माना और न कभी किसी तरह का अपमान महसूस किया, वरन पिता, भाई, पति की पहचान से जुड कर प्यार और अपनेपन से ही भरती रही है ! अब यदि बदले समय, विकसित समाज के साथ, उसके अपने विकसित व्यक्तित्व और अस्तित्व को भी स्वीकृति मिलने लगी है, तो इसमें न तो वह इतरा रही है और न ही अपनी कर्मठता और योग्यता का बोझ अपने सिर पर उठाकर घूम रही है ! उलटे कुंठा का मारा 'एक खास पुरुष वर्ग' नारी की कर्मठता और योग्यता से हारा हुआ, नई नई, छिछोरी उपाधियाँ उस पर थोप रहा है ! इसमें नारी को लांछित करना और उसकी आलोचना करना कहाँ तक न्याय संगत है ? या 'आप जैसे पुरुष इसलिए भय से ग्रस्त और त्रस्त है' कि – स्त्री की दासता के बंधन खुलने लगे हैं और पुरुष वर्चस्व का अंतकाल आ गया है….??' 'नारी द्वारा कागज़ पर कन्फैशंस लिखने से क्या तात्पर्य है आपका? यह कौन सा सुर लगाया आपने इस वाक्य के माध्यम से ? नारी क्यों कन्फैशंस करेगी भला ? कन्फैशंस करेगा वह 'मर्दवादी संघ' जो 'विश्वासघात' करता आया है ! बीते ज़माने में हर ओर से दबी – ढकी मजबूर नारी अपनी रक्षा के लिए 'डिफेंसिव' हुआ करती थी, लेकिन बदले समय के साथ, जब आपके ही भाई- बंधुओं ने उसकी आँखें खोली तो, वह अपनी क्षमता को पहचान कर 'आफैन्सिव' होना भी जान गई ! अपनी रक्षा हेतु 'आफैन्सिव' होना कोई गलत बात नहीं है, 'आफैन्सिव' होने पर उसने मर्दों को 'प्रतिवार' और 'प्रतिकार' का मौक़ा भी नहीं दिया ! यह उसकी समझदार रणनीति का प्रतिघाती दांव था जिसकी प्रतीक्षा करते-करते वह पिछली सदी से इस सदी में आ गई और धैर्य कायम रखते हुए, सही समय पर उसने अपनी शक्ति का परिचय दिया. राजेन्द्र जी, यह एक निर्विवाद सत्य है कि स्त्री सहज स्वाभाविक नारीमय रूप में रहकर ही अधिक सुकून और चैन पाती है. वह अपने अंदर छुपी शक्तियों का उपयोग सिर से पानी गुजर जाने पर ही करती है ! आगे आपने एक बहुत ही आपत्तिजनक बात लिखी है – स्त्री, पुरुष वर्चस्व से भरे मर्दों द्वारा औरत के अंग-प्रत्यंगों पर गढी गालियों के रुग्ण व सड़े- गले अर्थ हटा कर, उन निकृष्ट शब्दो में नए अर्थ और मंतव्य भरेगी ? क्यों, यादव जी, स्त्री को क्या पागलपन का दौरा पड़ा है जो वह ज़बरदस्ती, पुरुष जुबान से निकली गालियों में ख़ूबसूरत अर्थ खोजेगी और भरेगी ? आप क्यों भूल रहें कि गाली तो गाली होती है ! ऎसी गाली गढने वालों के लिए स्त्री 'काली' और दुर्गा भी हो सकती है, यह जान लें आप ! आपने जो 'वाइफ स्वैपिंग' की बात कही है, वह भी मर्दवादी शगल ही है ! आपको नहीं लगता कि इस 'हाई सोसायटी खिलवाड' के तहत मर्दवादी सोच ने औरतों को खिलौना बनाने की रीत चलाई ? इसी तरह, आपने यशपाल जी के माध्यम से 'वेश्या को स्वतन्त्र नारी' का प्रतीक बताया है ! माफ़ कीजिएगा, मेरा तो यह मानना है कि वेश्या से परतंत्र कोई दूसरी औरत नहीं होती ! किसी तरह जीवन निर्वाह करने के लिए, वह पैसे की गुलाम बन अनिच्छा से अपने शरीर का सौदा करती है ! औरत को कोठे पर बैठाने वाला भी हमेशा से मर्द ही रहा है ! वेश्या के परतंत्र जीवन की त्रासदी समझने के लिए, मैं चाहूँगी कि आप अमृतलाल नागर की पुस्तक 'ये कोठेवालियाँ' पढ़े ! अपनी मर्जी से कोई भी औरत न 'तवायफ' बनती है, न 'बार गर्ल' और न 'वाइफ स्वैपिंग' का खेल खेलना चाहती है, उसके पीछे – जैसा कि स्वयम आपकी कलम से निकला गया है – कि ''कोई न कोई लम्पट, औरतखोर पुरुष ही होता है – हवा में तो वह वैसी बनती नहीं !'' आपने 'हंस' में कहानी भेजने वाली लेखिकाओं पर भी फब्ती कसी है कि वे मन और शरीर से विचलित स्त्रियों और उनके अवैध संबंधों की कहानियाँ ही गढ़-गढ़ कर भेजती हैं ! वे ऐसा इसलिए कर रहीं हैं – क्योकि आप वैसी ही कहानियाँ छापना पसंद करते हैं. नैतिकता की बात कहती, पति-पत्नी की परस्पर वफादारी और एकनिष्ठ प्रेम की कहानियाँ आप पसंद ही नहीं करते ! इसी तरह आप जींस पहनने वाली आज की नई पीढ़ी की लडकियों की आलोचना में जो कुछ भी कह रहे हैं, बेहतर होगा कि आप जींस और टाप में ढके लड़की के जिस्म को भेद कर देखने को लालायित कुत्सित प्रवृत्ति वाले पुरुषों की भर्त्सना करें ! माना कि मर्द के मन के विचलित होने का दोष आप आज की जींस और टाप पहनने वाली लड़की को देगें, लेकिन जब कोई भी सीधी सादी, शालीन वेशभूषा वाली लड़की या भोली मासूम बच्ची किसी की हवस का शिकार बनती है, तो उसमे कौन गुनाहगार है ? वास्तविकता यह है कि पुरुष को ही अपने दिलो-दिमाग पर नियंत्रण नहीं है ! अपने विचलन, फिसलन, हर गुनाह का ज़िम्मेदार वह औरत को ही ठहराता है ! पाप खुद करता है और सज़ा औरत के लिए मुकर्रर करता है ! महान है आप और आपकी मर्दवादी स सोच ! इन प्रसंगों के बाद आपने अपनी सोच को नरम करते हुए 'स्त्री को इंसान' (आखिर मैं भी मनुष्य हूँ….) कहा ! मुझे बहुत अच्छा लगा और अँधेरे में एक आशा की किरण सी दिखाई दी ! यदि आप नारी को इंसान मानते हैं तो सह्रदयता से यह भी तो सोचिए कि आज तक नारी के भावनात्मक (आत्मिक) और शारीरिक तलों में से – उसे कौन सा अधिक ईप्सित रहा, किस तल पर वह सर्वाधिक जीती रही है ? सौ नारियों का सर्वेक्षण करेगें तो आपको नब्बे नारियाँ भावनात्मक (आत्मिक) तल पर जीने वाली मिलेंगी ! आप 'नारी मुक्ति' का नारा लगा रहे हैं, नारी की मुक्ति की वकालत ज़रूर कर रहे हैं लेकिन अपने मन मुताबिक़ (देह के स्तर पर), नारी के मन के अनुसार नहीं ! इस मुक्ति अभियान में भी आप मर्दवादी मनमानी करना चाहते है ? आपने लिखा है कि – 'हत्या, आत्महत्या, यातनाएं बर्दाश्त करके भी उसने (नारी) विद्रोह किए हैं…' इस बात पर भी मैं आपसे असहमत हूँ क्योंकि मेरा यह मानना है कि मर्दवादी व्यवस्था के चलते जिस यातना, हत्या और शोषण से उसे मुक्ति नहीं मिली, उससे उसने हत्या और आत्महत्या के माध्यम से मुक्ति पा ली ! 'हत्या और आत्महत्या' उसका विद्रोह नहीं, मुक्ति रही ! सती, सावित्री के जिस बलिदान को आप नारी जाति की प्रशस्तियाँ बता रहे है, अगर उसका दूसरा पहलू देखें तो वह पुरुष के दुर्व्यवहार एवं उत्पीडन का मर्सिया है ! यहाँ यह भी स्पष्ट करना चाहूंगी कि 'देह-मुक्ति के संघर्ष और सरोकारों से स्त्री-विमर्श का व्याकरण तैयार नहीं हुआ' बल्कि वैचारिक और भावनात्मक संघर्ष और सरोकारों से स्त्री-विमर्श का व्याकरण तैयार हुआ है ! इस सन्दर्भ में आप स्त्री-विमर्श के इतिहास के पन्ने पलटे और गौर करें कि 'फेमिनिज्म' की पहली लहर १८ वीं से २० वीं सदी में अमेरिका में 'वोट का अधिकार' पाने के लिए उठी थी. कहने की ज़रूरत नहीं कि वोट का अधिकार' देह से नहीं सोच – समझ (मस्तिष्क) से जुडा है ! इसके बाद दूसरी लहर १९६० -१९८० के बीच उठी जो पहले से एक कदम आगे थी क्योंकि उसके तहत सामाजिक क्षेत्र में लिंगभेद आधारित असमानताओं को लेकर महिलाओं ने आवाज़ उठाई. साइमन द बुआ इस लहर की पुरोधा रही जिसने नारी को 'अन्य' (the other) माने जाने पर आपत्ति की. इसी तरह १९९० ऐ अब तक – तीसरी लहर ने इस विमर्श को और अधिक पुष्ट करते हुए, उसे 'लिंग और जाति के इंटरसैक्शन' पर फोकस किया. इस सबका सार था – '' मर्दवादी व्यवस्था की मनमानी और अवमाननापूर्ण निषेधों को समाप्त कर, नारी की अपनी एक सम्माननीय पहचान बना कर जीने की स्वतंत्रता'' ! अब आप बताईए कि १८ वी सदी से लेकर आज तक चले आ रहे इस विमर्श में, नारी ने कब और कहाँ 'देह के स्तर पर' मुक्ति माँगी ? आप किस आधार पर और किस अधिकार से नारी-मुक्ति को 'देह-मुक्ति' से जोड़ते रहे हैं ? कुछ वर्ष पूर्व, आपकी ही तरह 'ओशो' (आचार्य रजनीश) ने भी देह से मोक्ष प्राप्ति का रास्ता लोगो को दिखाया था ! लोगों ने बड़ी उम्मीद से उनकी पुस्तक '……… से समाधि तक’ पढ़ी, लेकिन लोग मुक्त होने के बजाय, और अधिक देह लोभी और भोगी होते गए ! आज तक मैंने उनके किसी भी अनुयायी को मोक्ष प्राप्त करते नहीं देखा ! बल्कि उन मोक्षार्थियों को बेलौस उन्मुक्त और संसार में लिप्त ही पाया ! ओशो का देह द्वारा मोक्ष प्राप्ति का सिध्दांत निरा निर्थक और गलत साबित हुआ ! तो जो सारे झगड़े की जड है, कबीर, तुलसी – सबने जिसे माया – मोह का द्वार कहा, आपका सारा चिंतन निरंतर उसी देह के इर्द-गिर्द क्यों घूमता रहता है ? मेरा आपसे विनम्र निवेदन है कि या तो आप अपनी इस देहवादी सोच का परिष्कार कीजिए या नारी-मुक्ति की बेसिर पैर की व्याख्या करना छोड़ दीजिए !
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